ज़मीं पर कोई भी सब्ज़ा कभी पैदा नहीं होता
नबी के सब्ज़ गुम्बद का अगर सदका नहीं होता
न होते चाँद और तारे न सूरज की किरण होती
सरापा नूर है जो उनका गर जलवा नहीं होता
वहां से लौट कर हर लम्हा बस यह फिक्र रहती है
दरे सरकार से ऐ काश मैं लौटा नहीं होता
जबीं चौखट पे रख के कहता है दीवाना आका का
अगर आका नहीं होते कोई सजदा नहीं होता
तपिश से धूप की जलती सरे महशर तेरी उम्मत
अगर उम्मत पे दामन का तेरे साया नहीं होता
कयामत तक नहीं होता कुबूले हक कोई सजदा
अगर शब्बीर का वह आखिरी सजदा नहीं होता
हमारी मगफिरत के वास्ते गर तुम नहीं होते
हमें दोजख से बचने का कोई रस्ता नहीं होता
शजर कुछ भी नहीं होता गुनाहों के सिवा बाकी
मेरा दिल गर मेरे सरकार पर शैदा नहीं होता