روضۂ قطبِ جہاں کیا کیا نظر آتا ہے
کبھی خضریٰ تو کبھی کعبہ نظر آتا ہے
آپ کے در سے جو وابستہ نظر آتا ہے
وہ مجھے واقعی بس اپنا نظر آتا ہے
سب مریضوں کو شفا ملتی ہے در سے تیرے
در ترا فیض کا اک دریا نظر آتا ہے
کوئی بستا ہی نہیں آنکھوں میں میری مجھ کو
آپ کا در ہی فقط آقا نظر آتا ہے
جو وسیلے سے دعا کرتا ہے تیرے آقا
مدعا اپنا وہی پاتا نظر آتا ہے
جو سمجھتا ہے مقامِ شہِ قطب دو جہاں
منقبت آپ کی وہ پڑھتا نظر آتا ہے
جس کو بھی دیکھئے عفان زمانے میں وہی
صدقۂ قطبِ جہاں کھاتا نظر آتا ہے
रौज़ए कुतबे जहां क्या क्या नज़र आता है
कभी खज़रा तो कभी काबा नज़र आता है
आपके दर से जो वाबस्ता नज़र आता है
वो मुझे वाक़ई बस अपना नज़र आता है
सब मरीज़ों को शिफ़ा मिलती है दर से तेरे
दर तेरा फ़ैज़ का इक दरिया नज़र आता है
कोई बसता ही नहीं आंखों में मेरी मुझको
आपका दर ही फ़कत आक़ा नज़र आता है
जो वसीले से दुआ करता है तेरे आक़ा
मुद्दाआ अपना वही पाता नज़र आता है
जो समझता है मक़ामे शहे कुतबे दो जहां
मनक़बत आपकी वो पढ़ता नज़र आता है
जिसको भी देखिए अफ़्फ़ान ज़माने में वही
सदक़ए कुतबे जहां खाता नज़र आता है
rauza e qutbe jahan kya kya nazar aata hai